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ए॒वा ते॑ अग्ने विम॒दो म॑नी॒षामूर्जो॑ नपाद॒मृते॑भिः स॒जोषा॑: । गिर॒ आ व॑क्षत्सुम॒तीरि॑या॒न इष॒मूर्जं॑ सुक्षि॒तिं विश्व॒माभा॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā te agne vimado manīṣām ūrjo napād amṛtebhiḥ sajoṣāḥ | gira ā vakṣat sumatīr iyāna iṣam ūrjaṁ sukṣitiṁ viśvam ābhāḥ ||

पद पाठ

ए॒व । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । वि॒ऽम॒दः । म॒नी॒षाम् । ऊर्जः॑ । न॒पा॒त् । अ॒मृते॑भिः । स॒ऽजोषाः॑ । गिरः॑ । आ । व॒क्ष॒त् । सु॒ऽम॒तीः॑ । इ॒या॒नः । इष॑म् । ऊर्ज॑म् । सु॒ऽक्षि॒तिम् । विश्व॑म् । आ । अ॒भा॒रित्य॑भाः ॥ १०.२०.१०

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:20» मन्त्र:10 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:10


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ऊर्जः-नपात्-अग्ने) बल के न गिरनेवाले हे अग्रणायक परमात्मन् ! वा राजन् ! (ते) तेरे लिए (एव) ही (विमदः) विशिष्ट स्तुति करनेवाला या प्रशंसक (सजोषाः) तेरे साथ प्रीति को प्राप्त (अमृतेभिः) अमृतभोगों द्वारा-स्थिर भोगों द्वारा या उनको नियत बनाकर (सुमतीः-गिरः-इयानः-आवक्षत्) शोभन स्तुतियों द्वारा प्राप्त करने के हेतु समर्पित करता है (विश्वम्-इषम्-उर्जं सुक्षितिम्-आभाः) उसके लिए सब एषणीय अन्न व सुनिवास को आभासित कर-प्रकाशित कर-प्रदान कर ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अग्रणायक परमात्मा किसी के बल को गिरानेवाला नहीं होता। ऐसे ही राजा को भी किसी प्रजा के बल को नहीं गिरना चाहिए। प्रत्येक स्तोता अथवा प्रजाजन उसके साथ प्रीति को प्राप्त हों। उपासक या प्रजाजन उसके लिए स्तुति तथा प्रशंसा को समर्पित करते रहें, जिससे कि परमात्मा या राजा सब प्रकार के अन्नों व बलों तथा उत्तम निवास को प्रदान करता रहे ॥१०॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ऊर्जः-नपात्-अग्ने) बलस्य न पातयितः ! हे अग्रणायक परमात्मन् ! वा राजन् ! (ते) तुभ्यम् (एव) हि (विमदः) विशिष्टमदनः-विशिष्टः स्तोता प्रशंसको वा “मदति-अर्चतिकर्मा” [निघ०३।१४] (सजोषाः) त्वया सह प्रीतिं प्राप्तः (अमृतेभिः) अमृतकल्पैर्भोगैः-स्थिरसुखभोगैर्वा निमित्तभूतैः-तानमृतकल्पान् स्थिरभोगान् वा निमित्तीकृत्य (सुमतीः-गिरः-इयानः-आवक्षत्) मतिवतीः शोभनस्तुतीः प्राप्नुवन्नावहति समर्पयति, अत्र  (विश्वम्-इषम्-ऊर्जं सुक्षितिम्-आभाः) तस्मै सर्वमेषणीयमन्नं सुनिवासमाभासय प्रकाशय-प्रदेहि ॥१०॥